जानिए वेदों के बारे में संपूर्ण जानकारी | Complete information about Vedas

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  • आज हम इस लेख में जानेंगे कि वेद क्या है? कितने प्रकार के वेद होते हैं? वेद शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? और वेद शब्द का अर्थ क्या है?
  • इसके साथ-साथ वेदों को अच्छी तरह से जानने या पड़ने के लिए ब्राह्मण-ग्रंथो, आरण्यक ग्रन्थ, उपनिषद साहित्य और वेदांगों को जानना भी जरूरी है।

वेद क्या है और कितने प्रकार के हैं।

  • वेद एक पवित्र एवं प्राचीन ग्रंथ है। अति प्राचीन काल से आज तक हिंदू धर्म के लिए वेद एक महत्वपूर्ण ग्रंथ रहा है। वेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। वेद चार प्रकार के है।

     

1. ऋग्वेद } ऋग्वेद को प्रथम वेद माना जाता है जिस में 10 मंडल, 1028 सुक्त और मंत्रों की संख्या 10627 है। मंत्र संख्या के विषय में विद्वानों मैं कुछ मतभेद है। जिसके द्वारा देवताओं की स्तुति की जाए , उसे ऋक् कहते हैं-

ऋच्यते स्तूयते वानया इति ऋक् ”

    ऐसी रचनाओं के संग्रह का नाम ऋग्वेद है। इसका मूल विषय ज्ञान, देवताओं के वर्णन और ईश्वर की स्तुति आदि है।

 

2. यजुर्वेद } यजुर्वेद मूलतः कर्मकांड ग्रंथ है। इसमें यज्ञ की विधि एवं सरल प्रक्रिया के लिए 1975 गद्य और पद्य मंत्र है। यहां यजुष शब्द का अर्थ है यज्ञ।अक्सर ऋग्वेद के बाद इसे दूसरा वेद माना जाता हैं। इसमें हमें ऋग्वेद के 663 मंत्र पाए जाते हैं।

 

3. सामवेद } सामवेद हिंदू धर्म के प्रसिद्ध चार वेदों में से एक वेद है। साम शब्द का अर्थ होता है गान। इस वेद का मुख्य विषय देवताओं की स्तुति गान के माध्यम से करना है। इस में मंत्रों की संख्या 1875 है। जिनमें से 75 मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।

 

4. अथर्ववेद } ऋग्वेद की भाषा और उसका स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जा सकता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई होगी। इस में मंत्रों की संख्या 5977 है। इस वेद में देवताओं की स्तुति के साथ चिकित्सा विज्ञान और दर्शन के भी मंत्र है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है।

वेद शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई और वेद शब्द का अर्थ क्या है।

  • वेद शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में सामान्य रूप से सभी विषयों के लिए किया जाता था। वेदों के बारे में अलग-अलग मान्यताएं प्रसिद्ध है उनमें से एक मान्यता यह भी है कि वेद सृष्टि के आरंभ से है और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। कुछ विद्वान वेद के काल की अवधि 1500 -600 ईसा पूर्व के मध्य मानते हैं तो कुछ विद्वान इन्हें ताम्र पाषाण काल 4000 ईसापुर का मानते हैं।

  वेद शब्द विद् विचारणें धातु से निष्पन्न होता है। इसी धातु से ‘विदित’ (जाना हुआ), ‘विद्या’ (ज्ञान), ‘विद्वान’ (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। स्वामी दयानन्द ने वेद शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-
Dayananda Saraswati (दयानन्द सरस्वती)

” विन्दन्ते लभन्ते विदन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्यां यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदा  ”

स्वामी दयानन्द

  अर्थात् जिनसे सभी मनुष्य सत्यविद्या को जानते हैं, प्राप्त करते हैं, विद्वान होते हैं अथवा सत्यविद्या की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त होते हैं वे वेद हैं।

  वस्तुत : वेद शब्द का व्याकरण निष्पन्न अर्थ ज्ञान है क्योंकि वेद की व्युत्पत्ति ज्ञानार्थक विद् धातु से है। ज्ञान शब्द व्यापक अर्थ का सूचक (प्रतिपादक) है इतिहास , भूगोल , गणित भी ज्ञान है। ज्ञानार्थप्रतिपादक ‘ वेद ‘ शब्द से भूगोल, इतिहास और गणित आदि का भी ज्ञान अभिप्रेत है।


  मुख्यतः वेद कहने से ज्ञान अभिप्रेत है। ऋषियों ने योगबल से समाधि में स्थित रहकर वेदों का दर्शन किया है। ऋग्वेद आदि में विभिन्न देवी – देवताओं के स्तुतिपरक मंत्रों का संकलन है।

ब्राह्मण-ग्रंथो

  • वेदों के संहिता भाग के संग्रह के पश्चात् वैदिक साहित्य में ब्राह्मण, ग्रंथ धर्म और दर्शन को समझना आवश्यक है। इनके महत्व और प्राचीनता का अनुमान इसी से स्पष्ट है कि अनेक ग्रंथों में वैदिक संहिताओं की भांति इन्हें भी वेद कहकर पुकारा गया है-

” मंत्रब्राह्मणात्मको वेदः “

” मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्  “

  अर्थात् मंत्र ( वैदिक संहिताऐ ) और ब्राह्मण वेद है। वास्तव में वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों का अस्तित्व पृथक है। वेद तो मूल ग्रंथ हैं और ब्राह्मण ग्रंथ उनके व्याख्यापरक ग्रंथ है। वेद व ब्राह्मण एक-दूसरे के पूरक हैं। जो मंत्र संहिताओं में दिये गये हैं, ब्राह्मण ग्रंथ उनकी व्याख्या करते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों को वेद इसलिए कह दिया है क्योंकि इन ग्रंथों के बिना वेदों को समझना कठिन है।

ब्राह्मण – ग्रंथों की संख्या

  • ऐतरेय और कौषीतकि या साँख्यायन ब्राह्मण ऋग्वेद के हैं। पञ्चविंश तथा ताण्ड्य महाब्राह्मण है षड्विंश्, अद्भुत और जैमिनीय सामवेद के ब्राह्मण है। तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेद का, शतपथ शुक्ल यजुर्वेद का तथा गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद का ब्राह्मण है।

  ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ होता तथा उसके कार्यों का, सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथ उद्गाता तथा उसके कार्यों का, यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रथ अध्वर्यु और उसके कार्यों का तथा अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रंथ ब्रह्मा और उसके कार्यों का प्रतिपादन करते हैं।

आरण्यक ग्रन्थ

  • संहिताऐं, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद-वैदिक साहित्य के मुख्य अंग हैं। ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। इस दृष्टि से ब्राह्मण ग्रंथों के बाद आरण्यक ग्रंथ ब्राह्मणों और उपनिषदों के बीच की कड़ी है। कर्मकाण्ड की दृष्टि से ब्राह्मण ग्रंथ एवं आरण्यक ग्रंथ परस्पर संबंधित है, जबकि ज्ञान की दृष्टि से आरण्यक ग्रंथ एवं उपनिषद ग्रंथ परस्पर संबंधित हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की कर्मपरक व्याख्या की गई है। जबकि आरण्यक ग्रंथों में यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या की गई है।

उपनिषद् साहित्य

  • वेद व ब्राह्मण ग्रंथ मनुष्य के जन्म के पूर्वपक्ष से संबंध रखते हैं। आरण्यक ग्रंथ जीवन के उत्तर पक्ष से संबंधित हैं और उपनिषद् इस मनुष्य जीवन का एक उदात्त पक्ष प्रस्तुत करते हैं।

  मनुष्य मननशील प्राणी है। समस्त सांसारिक सुखों को भोगकर तीनों एषणाओं ( कामनाओं ) – 1. पुत्रैषणा ( कामवासना या पुत्र की कामना करना ) 2. वित्तैषणा ( प्रसिद्धि या ख्याति की इच्छा करना ) और 3.लोकेषणा ( यश, छाती, मान सम्मान आदि की चाह करना ) की प्राप्ति करके सोचता है कि मैंने इस जीवन में क्या पाया ? क्या खोया ? तब वह अनुभव करता है कि इसके द्वारा भुक्त समस्त भोग तो अस्थिर, अस्थायी, क्षणभंगुर हैं। उनका भोग करके तो उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, तब वह सुख – दुःख, रोग द्वेष, मोह-माया आदि से मुक्त होना चाहता है। इस मुक्ति के लिए उसे ज्ञान की आवश्यकता होती है। वह उपनिषदों में निहित है।

  उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जो उसे अंधकार से प्रकाश की ओर अज्ञान से ज्ञान की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वान प्रो. ड्यूसन महोदय ने कहा है-

” On the tree of Indian wisdom there in no fairer flower than the upanishads “

  अर्थात् भारत के बुद्धि रूपी तरु पर उपनिषद् रूपी सुमन से सुंदरतर अन्य कोई सुमन नहीं है।

वेदांग

  • वेदों के अंग को वेदांग कहा जाता है वेदों के 6 अंग होते हैं-

” शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिष तथा ।

कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः । ।  “

  शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और कल्प। इन्हीं 6 अंगों को वेदाङ्ग कहा जाता है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर के सभी अंगों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। दूसरा कोई अंग उसका स्थान नहीं ले सकता, उसी प्रकार वेदों के पूर्ण अर्थ को समझने के लिए प्रत्येक अंग का अपना-अपना महत्त्व है।

  इन 6 वेदाङ्गो के बिना वेदों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। वेदों की व्याख्या तथा यज्ञादि में उनके विनियोग के ज्ञान के लिए वेदाङ्ग का ज्ञान जरूरी हैं। इनका वेदों के साथ घनिष्ठ संबंध है। यह कहा गया है कि एक ब्राह्मण के लिए वेद के साथ वेदाङ्गों का अध्ययन नित्य नैमित्तिक कर्म माना गया है। कहा गया है-

” ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च  “

  ये नित्य नैमितिक कर्म हैं जिनके करने से मनुष्य को कोई पुण्य की प्राप्ति नहीं होती, किंतु जिनके न करने से वह पापयुक्त हो जाता है।

1. शिक्षा } शिक्षा उन ग्रंथों का नाम है जिनकी सहायता से वेदों के उच्चारण का ज्ञान भली-भांति प्राप्त होता है। सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में शिक्षा की परिभाषा देते हुए कहा है कि

” वर्णस्वराद्युच्चारणप्रकारो यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा  “

  अर्थात जिसके द्वारा वर्ण स्वर आदि के शुद्ध उच्चारण की शिक्षा दी जाती हो वह शिक्षा नामक वेदांग है वेद पाठ के समय शुद्ध उच्चारण और खुद स्वर्ग प्रक्रिया का होना आवश्यक है। इसमें वेद का शुद्ध पाठ करने के लिये ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, समाहार, स्वरित्,अनुनासिक आदि भेद से शिक्षा दी गई है, क्योंकि उच्चारणज्ञान के न होने से अनर्थ की प्राप्ति होती है।

2. कल्प } वेदों में कल्पसूत्रो का महत्वपूर्ण स्थान है। कल्प का अर्थ है विधि, नियम, न्याय, कर्म और आदेश। इस प्रकार अनेक विधि-विधानों, कर्म अनुष्ठानों, नियमों, रीति व्यवस्थाओं और धर्म आज्ञाओं का संक्षिप्त सार युक्त विवेचन करना ही कल्प सूत्रों का प्रतिपाद्य विषय है

3. व्याकरण } व्याकरण भी वेद का महत्वपूर्ण अंग है। आचार्य पाणिनि ने इसे वेद रूपी शरीर का मुख बताया है-

“मुख व्याकरणं स्मृतम्  “

   महाभाष्यकार पतंजलि ने इसे वेद के 6 अंगों में सर्वश्रेष्ठ बताया है-

” प्रधानञ्च षट्सु अंगेषु व्याकरणम्  “

  व्याकरण एक और तो अति गूढ़ वेद मंत्रों का अर्थ स्पष्ट करने में सहायता करता है और दूसरी और वेद मंत्रों को सुरक्षित भी रखता है शब्दों की उत्पत्ति के उद्देश्य एवं उनके अर्थ निर्धारण की दृष्टि से ही वेद भाषा का शास्त्रीय अध्ययन इसी अंग के अंतर्गत होता है-

” व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा: अनेनेति व्याकरणम्  “

4. निरुक्त } निरुक्त और व्याकरण दोनों का विषय प्राय: एक समान है- शब्द ज्ञान और शब्द व्युत्पत्ति। निरुक्त का विषय कठिन वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति मूलक व्याख्या करना है। जो कठिन शब्द व्याकरण की पहुंच के बाहर थे, उनके अर्थ ज्ञान के लिए ही निरुक्त की रचना हुई। निरुक्त के रचयिता का नाम यास्क है। यास्क मुनि ने निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना है-

” तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम्  “

5. ज्योतिष } यज्ञ में सफलता के लिए अनुकूल तिथि नक्षत्र पक्ष मास रितू संवत्सर आदि का होना परम आवश्यक है अतः ज्योतिष नामक वेदांग का एक विशिष्ट स्थान है अनुकूल समय पर संपादित यज्ञ की अभीष्ट फल की प्राप्ति करवाता है

  समय की गणना ज्योतिष शास्त्र का मुख्य अंग है मैं का यह गणना गणित द्वारा ही की जा सकती है अतः कहा गया है कि जिस प्रकार मोरों की संख्या तथा सर्पों की मडिया सर्वश्रेष्ठ होती है उसी प्रकार के सभी वेदांग शास्त्रों में गणित सर्वोपरि है-

” यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

तद् वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।  “

6. छन्द } वेद मंत्रों की शुद्धता और इनके लयबद्ध गान के लिए छंद शास्त्र की आवश्यकता पड़ती है। यदि छंद शास्त्र का ज्ञान नहीं है, तो मंत्रों का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। कात्यायन ने अक्षर परिमाण को ही छंद का लक्षण बताया है- अर्थात जहां अक्षरों की संख्या निश्चित होती है उसे छंद कहते हैं। वेद मंत्रों के साथ छंदों का घनिष्ठ संबंध है। रुचि उत्पन्न करने वाला , सुनने में अच्छा लगने वाला और लयबद्ध वाणी ही छंद है-

“छंदयति पृणाति रोचते इति चंदा छंद: “

जिस वाणी को सुनते ही मन आह्लादित हो जाए जाता है। वहां छंदोमयी वाणी ही वेद है

वेदों के 6 अंग वेदांग-vedo ke 6 ang Vedanga

 

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
तस्मात्साङ्कमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।

  •   ये वेद के 6 अंग हुये। जैसे हमारे शरीर में मुख, नासिका, नेत्र, पैर, श्रोत्र आदि अंग हैं, वैसे ही छन्द को वेदों का पाद, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक और व्याकरण को मुख कहा गया है।

 

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